पद राग बसंत नं॰ ११०

मना मन में बिसरायो रे।
अपनो आप गम्यो अपने में
सत गुरु बतलायो रे॥टेर॥

अब क्या भेट करु सत गुरु के,
नजर न आयो रे॥१॥

मैं मेरा मुझ को बिसराया,
भेदा भेद भूलायो रे॥२॥

अपनो ही आप छिप्यो अपने में,
ऐसो अचम्भो आयो रे॥३॥

ऐसो अनादि अविद्या के बस हो,
चेतन जड कहलायो रे॥४॥

कई बार मानुष तन आयो,
भेद नहीं पायो रे॥५॥

महा कष्ट छूटे नहीं कबहूँ,
रज्जु में सर्प दिखायो रे॥६॥

श्री सतगुरु स्वामी देवपुरी सा
निर्भय थिर थायो रे॥७॥

श्री स्वामी दीप शरणे सुखदाई,
अपने में आप समायो रे॥८॥